वैदिक साहित्य से तात्पर्य उस पूर्ण साहित्य से है जिसमें वेद, ब्राह्मण, अरण्यक एवं उपनिषद् शामिल हैं। वर्तमान समय में वैदिक साहित्य ही हिन्दू धर्म के सबसे पुराना स्वरूप पर प्रकाश डालने वाला तथा विश्व का प्राचीनतम् स्रोत है। वैदिक साहित्य को ‘श्रुति’ कहा जाता है, क्योंकि (सृष्टि/नियम) कर्ता ब्रह्मा ने विराटपुरुष भगवान् की वेदध्वनि को सुनकर ही प्राप्त किया है।
वेद(Ved) शब्द संस्कृत भाषा के विद् शब्द से बना है। इसका अर्थ है ज्ञान होना। हिन्दू वेदों को अपौरुषेय या ईश्वर द्वारा रचित मानते है। उनकी दृष्टि में ये शाश्वत है।
यह कहा जाता है कि इनकी रचना ईश्वरीय प्रेरणा के आधार पर ऋषियों ने की। हमें इतना तो स्वीकार करना होगा कि इन मन्त्रों की रचना प्राचीन ऋषियों द्वारा ही हुई थी। उन ऋषियों के पश्चात ये वेद पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे है।
वेदों की आयु के विषय में जैकोबी ने कहा है की 4500 से 2500 ईसा पूर्व का समय वैदिक सभ्यता का युग है।
डॉ. विंटरनिट्ज़(Dr. Winternitz) का कथन है:
”प्राप्त प्रमाणों से इतना ही पता चलता है कि वैदिक युग किसी अज्ञात काल से 500 ईसा पूर्व तक रहा। इसी प्रकार 1200 – 500 ईसा पूर्व , 2000 – 500 ईसा पूर्व आदि युगों का उल्लेख किया गया है किन्तु यह बताना कठिन है कि इनमे से कौन सा काल सत्य के अधिक निकट है। वर्तमान अनुसन्धान के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि 500 ईसा पूर्व की जगह 800 ईसा पूर्व अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। अज्ञात काल द्वितीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व के स्थान पर तृतीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व ठहरता है। ”
कौटिल्य(Kautilya) ने लिखा है :
”ऋग्वेद, यजुर्वेद, और सामवेद को त्रिवेद कहा गया है। अब अथर्वेद और इतिहासवेद को इनमें मिला दिया गया और इन सबको वेद कहा गया। ”
वैदिक साहित्य को तीन युगों में बांटा जा सकता है
- प्रथम काल – संहिताओं का युग
- द्वितीय काल – ब्राह्मण-ग्रंथों का युग
- तृतीय काल – उपनिषदों, आरण्यकों और सूत्रों का युग
संहिताएं(Samhitas)

संहिताओं में चार वेद है :
- ऋग्वेद (Rigveda)
- सामवेद (Samaveda)
- यजुर्वेद (Yajurveda)
- अथर्ववेद (Atharvaveda)
ऋग्वेद संहिता
ऋग्वेद संहिता में 1017 या 1028 ”सूक्त” है जिन्हे विषयों और ऋषियों के नाम के अनुसार दस मंडलों में बांटा गया है। मंडल एक प्रकार के अध्याय है। कहा जाता है कि सबसे पुराने सूक्त दूसरे से नौवें मंडलों में मिलते है। प्रथम और दसवें मंडल बाद में जोड़े गए प्रतीत होते है। दसवें मंडल में ‘पुरुषसूक्त ‘ है।
सामवेद संहिता(Book of Chants)
सामवेद संहिता में 1549 या 1810 मंत्र है। सोमयज्ञ के समय उद्गाता ब्राह्मण इन मन्त्रों को गाते थे। केवल 75 मंत्रो को छोड़कर शेष सामग्री ऋग्वेद संहिता से ली गयी है। सामवेद के अध्ययन से पता चलता है कि आर्य संगीत-प्रिय थे।
यजुर्वेद संहिता(Book of Sacrificial Prayers)
इस संहिता से यज्ञ सम्बन्धी विधि-विधानों का पता चलता है।
यजुर्वेद के दो भाग है :
- शुक्ल यजुर्वेद
- कृष्ण यजुर्वेद
शुक्ल यजुर्वेद में केवल मंत्र ही पढ़ने को मिलते है , किन्तु कृष्ण यजुर्वेद में मंत्रो के साथ – साथ व्याख्या भी मिलती है। यह व्याख्या गद्यमय है। कृष्ण यजुर्वेद को अधिक प्राचीन माना जाता है।
अथर्ववेद
अथर्ववेद बहुत अधिक समय तक अथर्ववेद को वेद ही नहीं माना गया , लेकिन अब ऐसी कोई बात नहीं है। इसमें भूत – प्रेत आदि को वश में करने के लिए अनेक मंत्र दिए गए है। अथर्ववेद २० पुस्तकों में है और इसमें 731 सूक्त है। इनमे से कुछ वेद देवताओं की प्रशंसा में लिखे गए है।
ब्राह्मण (Brahmans)
ब्राह्मण ग्रन्थ संसार में स्तुति के प्रथम उदहारण है। वे यज्ञों का अर्थ बताते हुए उनके अनुष्ठान की रीति बताते है। प्रत्येक ब्राह्मण ग्रन्थ एक संहिता से सम्बंधित है। इस प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण और कौशीतकी ब्राह्मण का सम्बन्ध ऋग्वेद संहिता से है। प्रत्येक ब्राह्मण अन्य ब्राह्मणों से बहुत कुछ मिलता जुलता है, किन्तु फिर भी ऋग्वेद के ब्राह्मण होता – पुरोहितों के कार्य को महत्वशाली मानते है। सामवेद के ब्राह्मण उद्गाता – पुरोहित है और यजुर्वेद के ब्राह्मण में बताया गया है की अध्वर्युपुरोहित यज्ञ करते थे।
आरण्यक (Aranyakas)
ये आमतौर पर वन -पुस्तके कहे जाते है। वे ब्राह्मणों के अंतिम भाग है। आरण्यक दर्शन और रहस्यवाद से सम्बंधित है। ये ब्राह्मण ग्रंथो के वे दार्शनिक भाग है जो वनों में रहने वाले सन्यासियों के प्रायोग तथा मार्गदर्शन के लिए अलग कर दिया गया था।
उपनिषद (Upanishads)
शॉपेनहॉवर (Schopenhauer) का कथन है की ” संसार में उपनिषदों की भांति लाभदायक और ऊंचा उठाने वाला कोई और साहित्य नहीं है। यह साहित्य मेरे जीवन का सहारा रहा है – यही मेरी मृत्यु की सांत्वना बनेगा।”
उपनिषद का शाब्दिक अर्थ है ” निकट बैठना ” अतः इसका वास्तविक अर्थ है की जिज्ञासु शिष्य अपने गुरु के पास बैठता है और रहस्य सिद्धांत पर विचार विनिमय भी करता हैं। 800 और 500 ईसा पूर्व के मध्य कई ऋषियों ने 108 उपनिषदें लिखें है।
उनमे से वृहदारण्यक, छान्दोग्य , तैत्तरीय, ऐतरेय तथा कौशीतकी उपनिषद प्राचीनतम है। उपनिषदों में पुनर्जन्म के सिद्धांत को स्वीकार किया गया है। उपनिषदों में ज्ञानपूर्ण कथाएं तथा वार्तालाप भी है।
वेदांग (Vedangs)
शिक्षा, कल्प,व्याकरण, निरूक्त, छंद तथा ज्योतिष छः वेदांग है। शिक्षा उच्चारण से सम्बंधित है, कल्प विधि – विधान से, व्याकरण भाषा- विधान से, निरूक्त शब्द- व्युत्पत्ति से, छंद लय से, और ज्योतिष नक्षत्र-विद्या से। इनमें से शिक्षा तथा कल्प का अत्यधिक महत्व है।
वेदांगों के अतिरिक्त उपवेद भी है। उपवेदों में चिकित्सा संबंधी आयुर्वेद, युद्ध- कौशल सम्बन्धी धनुर्वेद, संगीत संबंधी गन्धर्ववेद तथा भवन – निर्माण कला संबंधी शिल्पवेद का नाम दिया जा सकता है।
छः दर्शन (Six Darshanas)
भारतीय दर्शन की छः शाखायें वैदिक साहित्य की आवश्यक अंग है। उन छः दर्शनों के नाम है, न्याय, वैशेषिक, साँख्य, योग, पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा। इन दर्शनों का रचना- काल छठी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर अशोक के समय तक है। दर्शनों की रचना सूत्रों के रूप में हुई।
न्याय दर्शन
गौतम ऋषि द्वारा लिखित न्याय दर्शन के अनुसार , तर्क ही समस्त अध्ययन का आधार है। यह विज्ञानों का विज्ञानं है। ज्ञान चार उपायों से पाया जा सकता है : प्रत्यक्ष अर्थात मौलिकता , अनुमान अर्थात कल्पना , उपमा अर्थात तुलना , तथा शब्द अर्थात मौखिक प्रमाण।
न्याय दर्शन पुनर्जन्म के सिद्धांत को मानता है। वह मानवमात्र को इससे मुक्त होने की प्रेरणा देता है।
वैशेषिक दर्शन
इसके लेखक ऋषि कणाद थे। यह वैशेषिक दर्शन पदार्थों से सम्बंधित है। पदार्थों को छह भाग में विभक्त किया गया है : द्रव्य , गुण , कर्म सामान्य , विशेष और समवाय। कणाद ने ईश्वर के विषय में स्पष्ट कुछ नहीं कहा है। ऋषि कणाद का दर्शन ब्रह्माण्ड का सम्पूर्ण दर्शन नहीं है।
सांख्य दर्शन
इसके रचयिता कपिल ऋषि थे। सांख्य दर्शन का आधारभूत सिद्धांत पुरुष एवं प्रकृति को पृथक मानना है।
तीन गुणों से प्रकृति का विकास होता है :
- सत्व गुण (Sattva Guna)
- रजस गुण (Rajas Guna)
- तमस गुण (Tamas Guna)
सत्व गुण अच्छाई और आनंद का स्रोत है। रजस गुण कर्म तथा दुःख का स्रोत है। तमस गुण अज्ञान, आलस्य, तथा उदासीनता को उत्पन्न करता है। यह दर्शन को यथार्थ नहीं मानता क्यूंकि यह शाश्वत नहीं है और कुछ समय बाद नष्ट हों जाता है।
केवल प्रकृति ही शाश्वत है। पुरुष अमर है और जीव पुनर्जन्म के बंधन में बंधे हुए है। सांख्य दर्शन ईश्वर के अस्तित्व में विश्वाश नहीं करता। प्रकृति और पुरुष ईश्वर पर आश्रित न होकर स्वतंत्र है।
योग दर्शन
इसे पतंजलि ने लिखा है। चित्त को एक स्थान पर केंद्रित करने या योग द्वारा मनुष्य जन्म – बंधन से छूट सकता है। जीवन के आध्यात्मिक एवं भौतिक दोनों पक्षों का ही विकास करने की चेष्टा करनी चाहिए।
इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए सात उपाय बताये गए है: यम, नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान और समाधि। योग का अंत ध्यान तथा समाधि में होता है। जब मनुष्य समाधि की अवस्था में पहुँचता है तो वह संसार से सम्बन्ध तोड़ लेता है। ईश्वर ही चिंतन का लक्ष्य है वही उद्देश्य प्राप्ति में हम सबकी मदद करता है।
पूर्व मीमांसा दर्शन
यह जैमिनी ऋषि द्वारा लिखी गयी है। यह दर्शन रीति – नीति से सम्बंधित है। इसमें वेदों की महत्ता को स्वीकार किया गया है। यह भी माना गया है की मनुष्य की आत्मा उसके शरीर, इन्द्रियों तथा ज्ञान से भिन्न है।
आत्माओं की अनेकता को भी माना गया है। धर्म उचित जीवन का साधन है। मनुष्य दो प्रकार के कर्म करता है : नित्य कर्म तथा काम्य कर्म। पूर्व मीमांसा सिर्फ व्यावहारिक धर्म से सम्बंधित है तथा परम सत्य की समस्या का हल ढूंढने की चेष्टा इसमें नहीं की गयी है। यह केवल कर्मकांड तक ही सीमित है।
उत्तर मीमांसा दर्शन
इसके रचयिता बादरायण ऋषि थे। उन्होंने चार अध्यायों में विभक्त 555 सूत्र लिखे है।
- पहले अध्याय में – ब्रह्म की प्रकृति तथा विश्व और अन्य जीवों के साथ उसके सम्बन्ध बताये गए है।
- दूसरे अध्याय – आपत्तियों से सम्बंधित है।
- तीसरे अध्याय में – ब्रह्म – विद्या – प्राप्ति की चर्चा है।
- चौथे अध्याय में – -ब्रह्म – विद्या के लाभ तथा मृत्यु के बाद आत्मा के भविष्य के सम्बन्ध में बताया गया है।
क्या आप जानते है की वैदिक इतिहास किस तरह से प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने में मदद करता है? अगर नहीं तो ये पढ़िए >> प्राचीन भारतीय इतिहास के साहित्यिक स्रोत – Sources of Ancient Indian History in Hindi
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